- 25 अक्तू॰ 2024
- Himanshu Kumar
- 14
फिल्म 'दो पत्ती': कमजोर कहानी या बंद तालियां?
शंशिका चतुर्वेदी के निर्देशन में बनी फिल्म 'दो पत्ती' का पहला दृश्य ही आपको सोच में डाल देता है। Kriti Sanon ने एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण दोहरी भूमिका को निभाते हुए जुड़वा बहनों - सौम्या और शेले की कहानी को जीने की कोशिश की है। कहानी में यह उलझन सिर्फ जुड़वा बहनों के बीच के बैर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नव यथार्थवाद की अंतर्निहित परतों को भी सहजता से उजागर करती है।
फिल्म की शुरुआत में सौम्या और शेले के इर्द-गिर्द एक तनावपूर्ण घटनाक्रम को दर्शाया गया है, जो बचपन की दुश्मनी का परिणाम है। यही तनाव कहानी में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाता है जब शेले, सौम्या के प्रेमी ध्रुव के प्रति आकर्षित होती है। ध्रुव की भूमिका में Shaheer Sheikh, जो एक समर्पित अभिनेता हैं, आत्मा में घुसने की कोशिश करते हैं लेकिन कहानी की दृश्यता के अभाव के कारण उनका प्रदर्शन फीका पड़ जाता है।
घरेलू हिंसा का दुर्भाग्यपूर्ण चित्रण
फिल्म का केंद्रीय विषय घरेलू हिंसा है। कृति सेनन ने इसे कुछ हद तक संवेदनशीलता के साथ निभाया है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि फिल्म इस मुद्दे का उतना गौर नहीं कर पायी जितना अपेक्षित था। यह एक गंभीर विषय है जिस पर फिल्म में विवेकपूर्ण और जिम्मेदार दृष्टिकोण की अनुपस्थिति महसूस होती है।
सहित भाग्यशाली कास्टिंग में काजोल भी हैं, जो ईमानदार पुलिस निरीक्षक विद्या ज्योति की भूमिका में दिखाई देती हैं। उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होते हुए भी फिल्म में पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाई। जबकि ब्रिजेंद्र काला, तन्वी आज़मी और सोहिला कपूर ने भी अपने अपने अद्वितीय अंदाज में फिल्म को संपन्न किया है।
स्त्रियों के संघर्ष का द्वंद्व
फिल्म का सबसे दिलचस्प आयाम यह है कि यह दोनों बहनों के जरिए स्त्री के भीतर के संघर्ष को दिखाने की कोशिश करता है, जहाँ एक महिला में अपने दबाव और साहस के प्रतीक होते हैं। लेकिन अफसोस कि इस विचार का संपूर्ण और प्रभावशाली ढंग से विकास नहीं हो पाया।
फिल्म का यह द्वंद्व उन लाखों महिलाओं का बोलबाला है जो लाचारी और साहस के बीच झूलती रहती हैं। इस पृष्ठभूमि में Kriti Sanon का प्रदर्शन दिलकश है। उनके किरदार की पीड़ा और अंदरूनी ताकत एक स्थिति को समझाने की कोशिश करते हैं लेकिन काजोल की उपस्थिति और उनके संभावित प्रदर्शन को फिल्म में सही से जगह नहीं मिलती।
दो पत्ती का रणक्षेत्र: अच्छा तारा, खराब स्क्रिप्ट
कुल मिलाकर 'दो पत्ती' उन दर्शन-संकलनों का हिस्सा बनने में विफल रही है जिनकी उम्मीद की जाती थी। एक मजबूत कास्ट के बावजूद, स्क्रिप्ट अधिकांश दर्शकों को अपनी तरफ नहीं खींच पाई। फिल्म का प्रदर्शन उन फिल्मों की श्रृंखला का हिस्सा है जो महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर अंततः ध्यान से बाहर जाती हैं। फिल्म एक ऐसी खूबियों की रचना कर सकती थी जो समानता और संघर्ष की दुनिया को आकार देती, लेकिन वह ऐसी भिन्नताओं में उलझ जाती है जिन्हें वह प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत नहीं कर पाई।
14 टिप्पणि
फिल्म एकदम बडु, समय की बर्बादी है, तेरे जैसे कोइ भी इसे देखके टाइम वेस्ट नहीं करेगा।
सच में, कहानी में कुछ तो दिलचस्प था, पर अभिनय और पटकथा में बहुत कमी थी, भले ही कृति ने दो रोल संभाले, फिर भी सपोर्ट की जरूरत थी।
ये फिल्म महिलाओं के संघर्ष को दिखाने की कोशिश करती है, लेकिन शायद इसे और संवेदनशील ढंग से पेश किया जा सकता था। संस्कृति के हिसाब से, ऐसे मुद्दे को हल्के‑फुल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए।
क्या आप नहीं देखते कि इस फिल्म की रीमिक्स में बड़े‑बड़े एलिट्स का कूड़ा‑करकट छुपा है?? सिर्फ एंटरटेनमेंट नहीं, यह एक गुप्त एजेंडा है! कहानी की खामियों को सरकार की साजिश से जोड़ना चाहिए।
देखो भाई, हमारी देशभक्ति की भावना को इस फिल्म में सही नहीं दिखाया गया है। कहानी में जो घरेलू हिंसा का चित्रण है, वह हमारे भारतीय मूल्यों को बिगाड़ रहा है। हमें ऐसे प्रोडक्शन को क्वारंटाइन में रखकर ठीक करना चाहिए। हमारे शोर्य को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, न ही ऐसे फिल्में जनमानस को भ्रमित करने दी जानी चाहिए। इसलिए मैं कहता हूं, इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस से बाहर निकालो, यह हमारे संस्कारों के खिलाफ है।
‘दो पत्ती’ की कहानी में एक बार फिर से देखते हैं कि संभावनाएँ कितनी बड़ी थीं, फिर भी एक असफल स्क्रिप्ट ने सबको निराश कर दिया।
कृति के दो किरदारों को निभाते हुए वह दोहरी पहचान का संघर्ष दर्शाती है, परंतु निर्देशन में गहराई नहीं दिख पाई।
पहले दृश्य में tension का निर्माण तो किया गया, पर बाद में वह tension कहीं खो गया।
ध्रुव का किरदार, जो शहीर ने निभाया, वह उम्मीदों से कम रह गया, क्योंकि वह सीन में प्रभावी नहीं हो पाया।
फिल्म का मुख्य मुद्दा-घरेलू हिंसा-को संवेदनशीलता चाहिए थी, परंतु लिखावट में फ्रेमवर्क की कमी है।
काजोल की भूमिका भी उतनी ही कमजोर रही, जो एक मजबूत पुलिस इंस्पेक्टर होनी चाहिए थी।
कास्ट में ब्रिजेंद्र काला, तन्वी आज़मी और सोहिला कपूर ने प्रयास तो किया, पर कहानी में उनका योगदान अधूरा लगा।
फिल्म में दो बहनों के बीच के अंदरूनी संघर्ष को दिखाने की कोशिश है, परंतु वह उतना गहरा नहीं हो पाया।
क्लाइमैक्स में हमें आशा की किरण चाहिए थी, लेकिन वह आधी अधूरी रही।
समग्र रूप से, फिल्म ने एक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे को उठाया, परंतु निष्पादन का स्तर बहुत कम रहा।
श्रोताओं को उम्मीद थी कि यह फिल्म सामाजिक बदलाव की दिशा में एक कदम होगी, लेकिन वास्तविकता में यह सिर्फ एक औसत थ्रिलर बन कर रह गई।
यदि लेखक और निर्देशक ने स्क्रीनप्ले को अधिक परतदार बनाया होता, तो परिणाम अलग हो सकता था।
फिर भी, कृति के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए, क्योंकि दोहरी भूमिका निपटाना आसान नहीं होता।
आखिर में, यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि कोई भी फिल्म केवल नाम या कास्ट से नहीं, बल्कि कहानी की गहराई से जीतती है।
भविष्य में यदि ऐसे प्रोजेक्ट्स में बेहतर स्क्रिप्ट और संवेदनशील निर्देशन हो, तो दर्शकों को संतुष्ट किया जा सकता है।
भाईको, मैं तो कहुंगा की बहुत बकवास फिल्म है,, ट्राइलर तो बना नहीं पाय, स्क्रिप्ट कमजोर,, ए़ऍय काको।
चलो देखो, फिल्म में कई कोशिशें थीं, लेकिन शायद उन्हें सही दिशा नहीं मिली 🤗। फिर भी कृति ने दो रोल संभालने में वाकई मेहनत की है, और हमें उसके हौसले की सराहना करनी चाहिए। आशा है अगली बार ऐसे प्रोजेक्ट्स में भी यही ऊर्जा दिखेगी! 🌟
देश के लिए ऐसी फिल्में नहीं बनानी चाहिए, सच्ची बात।
फिल्म को देख कर मेरे मन में एक पागल ख़्याल आया-क्यूं न इसे एक सामाजिक प्रयोग के तौर पर माना जाये? परन्तु, वास्तविकता में यह सिर्फ एक ठंडी कथा है, जिसका कोई दार्शनिक अर्थ नहीं निकलता। फ़ैक्टरिंग के हिसाब से स्क्रिप्ट में बुनियादी त्रुटि हैं। यह एक टॉक्सिक एनालिसिस बन गयी, जहाँ हर कोनो पर बड़बड़ाहट है और कोई समाधान नहीं।
भइया, यह फिल्म तो एकदम बकवास है, जल्दिए देखते ही बंद कर दो। मैं तो कहता हूँ, इस पर 5 स्टार नहीं, बल्कि 0 स्टार देता हूँ।
फिल्म में महिलाओं के संघर्ष को उठाने की कोशिश सराहनीय है, परंतु लेखन की कमी से संदेश पूरी तरह नहीं पहुंच पाता। कास्ट ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, फिर भी पटकथा में गहराई नहीं दिखाई। भविष्य में यदि कहानी को और विकसित किया जाए, तो यह एक प्रेरणादायक फिल्म बन सकती है।
कहते हैं कोई भी फिल्म पूरी नहीं होती, पर ‘दो पत्ती’ तो बकवास के बिंदु तक पहुंच गई। अगर आप समय बचाना चाहते हैं तो इसे बिलकुल नहीं देखिए।
ठीक है, देखा।