
- 26 सित॰ 2025
- Himanshu Kumar
- 4
एयर फ़ोर्स न प्रयोग की वजह से हुई चूक
पुणे में दिवंगत लेफ्टिनेंट जनरल एस.पी.पी. थोरत की आत्मकथा ‘रिवेले‑टू‑रेट्रीट’ के पुनःसंस्करण के विमोचन पर रिकॉर्डेड वीडियो संदेश में भारत के मुख्य रक्षा प्रमुख जनरल अनिल चौहान ने 1962 के चीन-भारत युद्ध को फिर से परखते हुए कहा कि भारतीय हवाई शक्ति का उपयोग न करना एक "क्रिटिकल मिस्ड ऑपर्च्यूनिटी" था। उनका मानना है कि यदि भारतीय वायु सेना उस समय तैनात होती, तो चीनी आक्रमण की गति को काफी हद तक धीमा या यहाँ तक कि पूरी तरह रोकना संभव होता।
चौहान ने उस दौर की एक आम धारणात्मक सोच को उजागर किया—कि हवाई बल के प्रयोग से संघर्ष तेज़ हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े‑पैमाने पर लड़ाई छिड़ सकती है। अब यह सोच, उन्होंने कहा, “आज के दौर में नहीं टिकती”।
- भौगोलिक लाभ: उत्तर‑पूर्वी मोर्चे में छोटे‑छोटे पहाड़ी पास और हवाई पट्टियों की निकटता से एयरक्राफ्ट का टर्न‑अराउंड टाइम बहुत कम रहता।
- लॉजिस्टिकल शक्ति: विमान बड़ी मात्रा में बम, रॉकेट और टैंकों को जल्दी‑जल्दी ग्राउंड पर रख सकते थे, जिससे दुश्मन की प्रमुख पोजीशन को सीधे निशाना बनाया जा सकता था।
- समय का लाभ: हवाई समर्थन से भारतीय सेना को प्रतिवर्ती कार्य करने के लिये अतिरिक्त दो‑तीन दिन मिल जाते, जिससे किले‑बंद क्षेत्रों की मजबूती बढ़ती।
इन बिंदुओं को लेकर जनरल ने कहा, “हवाई शक्ति ने चीनी आक्रमण को धीमा ही नहीं किया, बल्कि भारत को रणनीतिक रूप से बेहतर स्थिति में रखा होता।” उन्होंने आगे कहा कि आज के ऑपरेशनों में, जैसे मई 2025 में पहालगाम हमले के बाद शुरू की गई ऑपरेशन सिंधूर, एयर फ़ोर्स का उपयोग नयी रणनीति का अभिन्न भाग है। इस संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट किया कि “उस समय हवाई शक्ति को एस्केलेशन माना जाता था; अब इसे सही टूल माना जाता है।”

फॉरवर्ड पॉलिसी का पुनरावलोकन
जनरल चौहान ने 1962 से पहले अपनाए गए फॉरवर्ड पॉलिसी की भी गंभीर आलोचना की। उन्होंने कहा कि इस नीति का लदाख और उत्तर‑पूर्वी फ्रंटियर एजन्सी (अब अरुणाचल प्रदेश) दोनों पर समान रूप से लागू होना गलती थी। दोनों क्षेत्रों की ऐतिहासिक, भू‑भौतिकी और सुरक्षा स्थितियों में मूलभूत अंतर था।
लदाख में चीन ने पहले ही कई प्रमुख घाटियों पर कब्ज़ा जमा लिया था, जबकि एएनएफए में भारत की सीमा पर दावा अधिक स्पष्ट और मजबूत था। इस आधार पर, समान “फ़ॉरवर्ड” कदम उठाना दोनों क्षेत्रों के लिए एक समान परिणाम नहीं देता।
फॉरवर्ड पॉलिसी के दो प्रमुख दोषों को उन्होंने इस प्रकार संक्षेपित किया:
- भौगोलिक असंगति – लदाख के रेगिस्तानी‑पहाड़ी माहौल और एएनएफए के घने जंगल‑घाटा‑डोंगर के बीच रणनीतिक कार्यवाई में बड़ा अंतर था।
- राजनीतिक‑सुरक्षा संदर्भ – लदाख में चीन की तेज़ी से बढ़ती रूढ़ियों को देखते हुए, एएनएफए में भारत को अधिक कूटनीतिक लचीलापन मिला था।
इन बिंदुओं को देखते हुए, उन्होंने कहा कि “यदि उस समय इन दोनों क्षेत्रों को अलग‑अलग रणनीति के साथ संभाला गया होता, तो संभवतः भारत की स्थिति अधिक सुरक्षित रहती।”
जनरल ने यह भी रेखांकित किया कि थोरत जनरल ने 1962 के दौरान एयर फ़ोर्स उपयोग की वकालत की थी, परंतु उस समय सरकारी अनुमति नहीं मिली। आज के दौर में, इस तरह की रणनीतिक सोच को पुनः देखना और उचित सुधार लागू करना आवश्यक है।
इन सभी बयानों से यह स्पष्ट होता है कि भारत का रक्षा‑नीति अब बहु‑आयामी, एंटी‑टेरर और एंटी‑इन्फ्रास्ट्रक्चर कार्यों में हवाई शक्ति को मुख्य घटक मान रहा है। इस परिवर्तन ने न केवल सैन्य तालिका को बदल दिया है, बल्कि भविष्य में संभावित सीमावर्ती संघर्षों के लिए भी नई रूपरेखा तैयार की है।
4 टिप्पणि
जनरल चौहान की बात सुनकर यह स्पष्ट हो जाता है कि हम अपने इतिहास को ऐसी "आत्म-धार्मिक" गलती से नहीं देख सकते। अगर 1962 में एयर फ़ोर्स को बोल्ड तरीके से प्रयोग किया जाता तो शायद चीन‑भारत का नाटक आज दिग्री तक नहीं पहुँचता। लेकिन हमारे नेताओं ने "हवा" को लड़ाई नहीं माना, और यही उनके बड़े नैतिक पतन का संकेत है। अब समय आ गया है कि हम इस झूठी नीति को दोबारा दोहराने से बचें।
यह विचार बहुत ही समझदार है कि आज के समय में एयिर पावर को बुनियादी सुरक्षा उपकरण माना जाए। किसी भी सीमा संघर्ष में तेज़-तर्रार हवाई समर्थन से स्थिति को स्थिर किया जा सकता है। हमें इस बात को खुले दिमाग से अपनाना चाहिए और पुरानी डर की दीवारों को तोड़ना चाहिए।
आपके द्वारा बताए गए भू‑भौतिकीय लाभ को मैं बहुत ही स्पष्ट मानता हूँ। छोटे पासों में टर्न‑अराउंड टाइम कम होता है, इसलिए हवाई घेरा जल्दी स्थापित किया जा सकता है। साथ ही, लॉजिस्टिक सपोर्ट के लिए विमान बड़े पैमाने पर सामग्री लोड कर सकते हैं, जिससे अग्रिम पंक्तियों को सुदृढ़ किया जा सकता है। यह न केवल रणनीतिक बल्कि मानवता के लिहाज़ से भी लाभकारी है।
आशा है कि भविष्य की रक्षा नीति में यह बिंदु प्रमुखता से शामिल होगा।
इतिहास में अक्सर देखने को मिलता है कि बड़े‑बड़े कमांडर छोटे‑छोटे तकनीकी पहलुओं को नजरअंदाज कर देते हैं। हवाई ताकत का उपयोग न करने का कारण शायद उनका अति‑आत्मविश्वास था। इस तरह की जड़ता आज भी कई फैसलों में दिखाई देती है। हमें इससे सीख लेनी चाहिए।